Monday, June 24, 2013

विकास किसका – "कचरे का"

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeमिट्टी के मकान और फूस की झोपड़ी में से इतना भी कचरा नहीं निकला था कि दोनों हाथों मे भर सके। देखना है तो सुदूर देहात में जाइए और किसी आदिवासी के यहां सुबह-सुबह देख लिजिए। फिर आदमी ने आधुनिक बनना और विकसित बनना शुरु किया। आदमी के द्वारा फेंके गए कचरे से गढ्ढे भर गे, तालाब-आहर-पोखर-पइन भी भर गए। गोया कचरा न हो कोई राक्षस हो। हल्की-सी बरसात हुई नहीं कि बाढ़ हाजिर हो जाए और उस बाढ़ में बहता गली-कुचे में लुक छिप कर फेंका गया कचरा मुंह के सामने नाजिर हो जाए।










विकास हुआ तो कचरे का या आदमी का, यह सवाल आदमी से पूछने पर थप्पड़ खाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी को विकास के प्यार में परेशान है। वह दिन-रात या तो बेरोजगारी का थप्पड़ खा-खाकर परेशान है, या नियोक्ता के। जो इनसे बच जाते हैं वे तो मीडिया के पीछे पड़ने से परेशान हैं। कुछ भी हो परेशान मस्तिष्क को सवाल-जवाब से झुंझलाहट होती है। परेशानीयों के थप्पड़ खाकर झुंझलाया इंसान इस तरह के सवाल करनेवाले पर थप्पड़ जरुर चला देगा। क्योंकि वह जानता है कि उसके सोंचने से कोई व्यावहारिक संतोषप्रद जवाब नहीं मिलेगा। इसलिए जो सोचने को कहे समझो समय उसका भारी हो गया है। तब कचरे से ही सवाल पूछ्ना मजबुरी है।







अब कचरा भी बोलता है भला! आदमी चुप रहता है तो सबूत बोलता है। सबूत को चुप करने के लिए रुपया बोलता है! रुपए के दम पर वकील बोलता है, वकील के दम पर न्यायाधीश बोलता है। विज्ञापनदाता के कहने पर पत्रकार बोलता है, कसाई के यहाँ पहुँचने पर गुंगा बकरा भी बोलता है। इसी तरह जब डेंगु-मलेरिया होता है तो मरीज के मुंह से कचरा बोलता है, सरकार के पुरी फौज लगाने पर भी नहीं मरनेवाले मच्छर के मुंह से कचरा बोलता है, ऑटो-कार-रेलवे-कारखाने के धुंए से कचरा बोलता है, गौर से देखो गली-गली में आजु से बाजु से कचरा बोलता है।







कचरा क्या बोलता है – पहाड़ों में पत्थर थे, पथरों पर झाड़ीयाँ थी, झाड़ीयों मे हरियाली थी, हरियाली मे जड़ी-बुटीयाँ थी, जड़ी-बुटीयों मे मनुष्यों की जीवनी शक्ति थी। मनुष्यों ने अपनी जीवनी शक्ति की जड़ी-बुटीयों की नस्ल मिटायी, हरियाली हटा कार्बन-डाई-ऑक्साइड बढ़ाया। फिर पत्थरों को तोड़ने में बारुद लगाया, ढोने में डीजल, इंच-दर-इंच कंक्रीट ढलवाया । हर दस साल बाद नया कंक्रीट ढलवाया। मनुष्यों के द्वारा तोड़ा गया हर पत्थर एक दिन कचरा बन जाता है, पेट्रोलियम की हर बुंद एक दिन कचरा बन जाती है, हर पानी की बोतल कचरा बन जाती है, दवाओं की पैकिंग कचरा बन जाती है, कुर्सी-पलंग-टेबुल कचरा बन जाती है, हर कागज का टुकड़ा कचरा बन जाता है, हर भोजन (चाय-बिस्कीट-केक) की पैकेजिंग कचरा बन जाती है, बच्चे जब अकेले छोड़ कर विदेश चले जाते हैं तब समझ में आता है कि इंसान खुद कचरा बन गया है। कभी राजतंत्र कचरा बन जाता है तो कभी राजा कचरा बन जाता है, कभी प्रजातंत्र का प्रधानमन्त्री – राष्ट्रपति भी एक दिन कचरा बन जाता है।







मनुष्य जो भी विकास के नाम पर करता है वह एक दिन कचरा बन जाता है। इंजिनीयरींग का नमुना पटना का गांधी-सेतु कचरा बन जाता है, अमेरीका का वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर कचरा बन जाता है। मेडिकल साइंस की खोजी गई हर नई एंटीबायोटिक एक दिन कचरा बन जाती है। नौकरी स्थायी हो जाने पर पी0एच0डी0 की थेसिस भी कचरा बन जाती है। जब स्टेशन पर शिशु को दूध नहीं मिलता तो पॉकेट का रुपया कचरा बन जाता है। स्टेशन से याद आया – हर बीस साल बाद रेलवे का इंजन-पटरी-डिब्बा कचरा बन जाता है, पचास साल बाद पूरा रेलवे स्टेशन कचरा बन जाता है। नालंदा विश्वविद्दालयों के खंडहरों में कुआँ आज भी मौजुद है लेकिन महान अविष्कारों की देन बोरींग-मोटर-पानी की टंकी कचरा बन जाती है।







कचरे ने आगे कहा – बता भला मैं रक्तबीज कैसे न बनुं। जब मनुष्य दिन-रात कचरा बनाता है, अपनी सारी अकादमिक बुद्धि को कचरा बनाने में लगाता है, उसका हर आविष्कार और अनुसंधान नए-नए विकसित संस्करण के कचरे बनाने का प्रतिफल देता है, उसकी पढ़ाई नंबर एक की दौड़ में उसके अच्छे भले बच्चे को कचरा बना देती है, उंची पगार और कैरियर के लिए बारह चौदह घंटे प्रतिदिन की कसरत को जायज ठहराकर दिल-नाड़ी-किडनी को कचरा बनाती है। मानव का कोई ऐसी गतिविधि ही नहीं है जो क्चरा नहीं बनाती – क्या फैशन, क्या एजुकेशन, क्या नौलेज, क्या जर्नलिज्म, क्या इंटरप्रेन्योरशीप, क्या रिसर्च, क्या इन्नोवेशन।









पूछना पड़ा – पिछले हजारों सालों से आप कहां थे कचरा महान? मानना पड़ेगा कि धरती से अँतरीक्ष तक आपका ही साम्राज्य है। आपको किसी का भय नहीं लगता? सतयुग-द्वापर-त्रेता का अंत हुआ, इतिहास में कई राक्षसराज पैदा हुए सबका अंत हुआ, ईश्वर के सभी अवतारों का अंत हुआ, लेकिन आपको तो अपने अंत का कोई भय ही नही है। कभी कोई बुरा सपना देखा हो तो बताएँ।







अट्टहास कर कचरा बोला – हजारों सालों से न कंक्रीट था, न पेट्रोलियम और न ही मानव में मूर्खता थी। मानव जो भी करता नैतिकता के दायरे से बाहर नहीं जाता था। सबसे बड़ी बात कि मनुष्य तब प्रकृति को ईश्वर समझता था और खुद (अपने शरीर) को कचरे का डब्बा। अपने स्वत्व के अहंकार से मुक्त रहकर वह प्रकृति का पोषण करता था, अभी की तरह दोहन नहीं. पहले वह उन्हें गुरु मानता था जो हर तरह का ज्ञान, आनंद और विकास अपने शरीर के अंदर से ढुँढ़ निकालते थे। दुसरों के लिखे-कहे का रट्टामार जोड़-तोड़ कर खुद को बड़ा साबित करने की कोशिश करनेवाला धुर्त घोषित कर दिया जाता था। अब वह उसे गुरु मानता है जो ज्यादा से ज्यादा किताबें रट्टा मार चुका हो, ज्यादा से ज्यादा कागज के रुपये, डिग्रीयां या सम्मानपत्र इकट्ठा कर चुका हो। अब सबसे बड़ा वह है जो सबसे ज्यादा कचरा गढ़ चुका हो।







तभी तो हिमालय की तराईयों में और अंडमान-निकोबार के द्वीपों में मनुष्य हजारों सालों से चैन से रह रहा था। आज उसे कहीं चैन नहीं है। गांवों से शहर भागता है, शहरों से महानगर, महानगरों से विदेश, विदेश से दुसरे ग्रहों पर लेकिन बेचैन ही मर जाता है। वह भूल गया है ईसा मसीह और पैगम्बर मोहम्मद को, राम और कृष्ण को कालपनिक घोषित कर चुका है – गांधी को भी कहां मानता है। गांधी ने कहा था कि पृथ्वी अपने सारी संतानों को खाना दे सकती है लेकिन किसी एक व्यक्ति के लोभ का पेट नहीं भर सकती। अगर उनकी बात को मनुष्य मानता तो तमाम लोभीयों को चुनाव में सीधे हरा देता लेकिन पीढ़ीयों से रोटी देनेवाली अपनी धरती मां को छोड़ कर भागता नहीं। जिस प्रकार आदमी जितना भागता है उसे कुत्ते और मधुमक्खी उतना ही खदेड़ते हैं, उसी प्रकार आज का आदमी जितना भागदौड़ करता है उतना ही मेरा साम्राज्य बढ़ता है, क्योंकि विकास की मृगतृष्णा में वह हर कदम पर कचरा ही तो पैदा करता जाता है।









मुझे किसी का भय नहीं है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि इतनी दूर तक सोंचे, जो इतना सोचेगा उसे दुनिया पागल घोषित कर देगी, न्युटन की तरह। वह जितना बाहरी विकास करेगा उअतना ही कचरा पैदा करेगा, उतना ही अधिक मेरा साम्राज्य बढ़ेगा, उतना ही मैं गरीबों का खुन पिउंगा और शक्तिशाली बनुंगा। जो बचेंगे वे विकास के अतिरिक्त कुछ भी दाएँ-बाएँ नहीं सोचेंगे क्योंकि वे मानते हैं कि वे ही सबसे बुद्धिमान, शक्तिशाली और विकासशील और विकासशील हैं। जो भी आभ्यंतर के विकास की बात करेगा उसे आमरण अनशन की मौत नसीब होगी। इसलिए मैं निर्भय हुं। जो लोग ठहरकर सोचेंगे वे पायेंगे कि उनका पड़ोसी उनसे बहुत आगे निकल चुका है, उनकी आनेवाली पीढ़ीयां अपने भौतिक पिछड़ेपन के लिए अपने पितरों को गाली देंगी और विकास की अंतहीन अंधी सुरंग में दौड़ पड़ेंगी - जिवनभर कचरा पैदा कर खुद कचरा बन जाने के लिए।







हां! एक बार बहुत समय पहले एक बुरा सपना आया था, गांधी की तरह कोई खुद नंगे रहकर अनुयायियों से कपड़े जलवा रहा था, मार्क्स की तरह पेट्रोलियम-कंक्रीट के खिलाफ चौराहे पर चिल्ला रहा था, शंकराचार्य और विवेकानंद की तरह विश्वभर के विद्वानो और वैज्ञानिकों को निरुत्तर कर रहा थ, ईसा मसीह की तरह उसे सुली पर चढ़ा दिया गया तब जाकर मेरी नींद खुली। जब नींद खुली तो पाया कि पिछले एक घंटे में मेरा साम्राज्य 100 हेक्टेयर बढ़ चुका है, मेरे अनुयायीयों की संख्या एक लाख बढ़ चुकी है सारे अनुयायियों ने कमा-कमाकर एक हजार टन कचरा बढ़ा दिया है। सपने से पैदा हुई चिंता दूर हो चुकी थी।



कृपया अपनी प्रतिक्रिया हमें जरुर दें..

खाप – वोटतंत्र का श्राप

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeहरियाणा के 2012 के सितंबर में 18 महिलाओं, जिनमें नाबालिग भी शामिल हैं, के साथ बलात्कार की घटनाएँ पुलिस द्वारा दर्ज की गई हैं। इनसे हरियाणा सरकार की इतनी किरकिरी हुई कि सोनिया गाँधी जब हरियाणा गई तो एक बलात्कार-पीड़ित दलित महिला से मिलने अस्पताल जा पहुँची। लेकिन उन्होने जब हरियाणा छोड़ते समय पत्रकारों से बात की तो बलात्कार की औपचारिक आलोचना के साथ ही यह भी कह गईं कि देशभर में इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपराधियों को सजा, पीड़ितों को न्याय और कानून व्यस्था में सुधार के बजाए अपनी हरियाणा सरकार का बचाव उनकी प्राथमिकता बन गई। गोया महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं तो इसे न तो हरियाणा सरकार और न ही केन्द्र सरकार की कोई जिम्मेवारी है, न इसे उनकी असफ़लता के तौर पर देखा जाना चाहिए।








जब बलात्कार-पीड़िता से मिलने के बाद इस तरह का असंवेदनशील बयान दिया गया तो बलात्कारी से मिल लेने के बाद क्या होता? संभव है कि तब वही बयान होता जो हरियाणा की खाप पंचायतों ने दिया – “लड़कियाँ पहले की अपेक्षा अब जल्दी जवान हो रही हैं इसलिए उनकी जल्दी शादी कर दी जानी चाहिए – सरकार को विवाह की न्यूनतम उम्र सीमा को घटाकर पंद्रह साल कर देना चाहिए।”



यह हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खाप-राजनीति का ही असर है कि बलात्कारियों को यथाशीघ्र सजा सुनिश्चित करने के बजाए ऐसी घटनाओं की वर्ष-दर-वर्ष बढ़ती संख्या को सामान्य रुप से लेने की कोशिश, उस राजनीतिक हस्ती को करनी पड़ी जिसे विश्व की छठवें नंबर की सबसे शक्तिशाली महिला घोषित किया गया है।



हद तो तब हो गई जब उन्हीं की पार्टी के नेताओं ने न सिर्फ खुलेआम खाप की बातों का समर्थन किया बल्कि विपक्ष ने पूरी तन्मयता से खापों की बात राज्यपाल तक पहुँचाने में शीघ्रता दिखाई। खापों के डर से उत्तर प्रदेश से राजस्थान, हरियाणा से हिमाचल प्रदेश तक के सत्ताधारी और विपक्ष के नेता समय-समय पर खापों के दकियानूसीपन का समर्थन करते देखे जाते हैं।



आजादी के पैंसठ साल बाद भी जिस देश के अधिकांश ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा की बैठकें नहीं होती, जातीय राजनीति करनेवाले करनेवाले अधिकांश लोग बिना दहेज के अपनी ही जाति की बेटी को अपनी बहू नहीं बनाते, किसी पंचायत सरकार के काम और खर्च का हिसाब न तो जनता ही एकजुट होकर माँगती है, न ही मिलता है, ऐसी परिस्थिति में आखिर यह कौन सी बात है जिसकी वजह से एक बड़े भू-भाग में हिन्दू से मुस्लिम तक खाप पंचायतों का बोलबाला है।



कभी ये खाप पंचायतें एक स्त्री को कुछ साल से साथ रह रहे पति को छोड़कर अपने पुराने पति के पास लौट जाने का फरमान सुनाती हैं, तो कभी बच्चों और प्रेमी-पति को छोड़्कर पिता की मर्जी से दूसरी शादी कर लेने का। इन खापों की अधिकांश चिंताएं स्त्रियों को लेकर ही होती हैं। स्थानीय राजनेता खुलेआम इन खापों का समर्थन करते हैं तो राष्ट्रीय राजनेता कुटनीतिक रूप से या मौन से।







इस क्षेत्र में अधिकांश महिलाएं अभी जागरुकता की पहली सीढियों पर ही हैं और समाज मुख्यतः पुरुषवादी ही है। अलग-अलग जातियों और समुदायों का घनत्व कहीं न कहीं ज्यादा होता है। ऐसी जगहों पर ये समूह पारंपरिक रूप से अपनी समस्याओं को खाप पंचायतों में सुलझाते थे। वर्तमान में ऐसी पंचायतों का नेतृत्व ऐसे लोग करते हैं जो या तो दबंग प्रवृत्ति के होते हैं या पारंपरिक रुप से धनाढ्य रहे हैं।





लोकतंत्र का तकाजा है कि राजनेताओं के लिए यह जरूरी हो जाता है कि कम-से-कम मेहनत में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएँ। यही तकाजा राजनेताओं को खापों का समर्थन करने पर मजबूर कर भारतीय लोकतंत्र को वोटतंत्र का जनाजा बना देता है। राजनेताओं को एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग मिलने के बजाए खाप के चंद नेताओं से मिलना और उन्हें अपने पक्ष में करना आसान होता है। बाद में खाप के ये नेता राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में सामुहिक या जातीय गोलबंदी का काम करते हैं। बदले में राजनेता ठेकेदारी-पट्टेदारी आदि के जरिए इन दबंगों के व्यक्तिगत हित मदद करते हैं और सामुहिक हित सामूहित कार्यों (ज्यादातर धार्मिक या आडंबरकारी आयोजनों) में चंदे देकर करते हैं। यह एक अति-सरलीकृत विवेचना है, उम्मीद है पाठकगण लेखक से ज्यादा समझदार होंगे ।



यह मजबुरी राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं को इन खापों को बनाए रखने का कारण बनती है। दुसरी तरफ खापों को अपने आस-पास के माहौल पर वर्चस्व बनाए रखने में मदद करती है, विजयी राजनेता के समर्थक अपने क्षेत्र में दुसरी जातियों समुदायों पर वर्चस्व बनाये रखने में नेताजी की मदद भी लेते हैं। कभी-कभी तो ये राजनेता खापों के बीच विवादो में सुलहकर्ता की मुख भुमिका में भी रहते हैं। इस तरह तैयार होता है एक लोकताँत्रिक राजनेता और खाप का ऐसा गठजोड़ जो एक-दुसरे को कुछ भी करने की छुट दे देता है।



सर्वोच्च न्यायालय इन खाप पंचायतों और उनके द्वारा समय-समय पर जारी होनेवाले फरमानों को असंवैधानिक करार दे चुकी है, यहां तक कि कई मौकों पर खापों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा है। इसके बावजूद खाप पंचायतें न केवल तालीबानी फरमान जारी करती है बल्की स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय मीडिया के समक्ष उपस्थित भी होती है। राजनेता मजबुर है कि समर्थन करना छोड़ नहीं सकते। आलोचना होने पर केन्द्र राज्यों पर और राज्य केन्द्र पर कुटनीतिक दार्शनिकता की गुगली मारते हैं। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सर्वोच्च नेता का बयान खापों की आवश्यकता का नतीजा भले ही रहा हो लेकिन वोट के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो कानून का राज नहीं रह पायेगा। रह जायेगा तो केवल खापों का राज जो आधी आबादी के गैरतपूर्ण अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देगा।



एक रुपये के अखबार को दस रुपये की चीन-आयातित पोलिथीन शीट ने हरा दिया

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अखबार गरीबों के विकास कि चाहे जितनी चिन्ता करते हों, लेकिन स्टेशन पर गरीबों के बिछावन के तौर पर जरुर भारत-प्रसिद्ध था। सबसे कम किमत में मिलनेवाला अखबार गरीब तथा निम्न-मध्यवर्ग का चहेता इसलिए भी था क्योंकि वह थाली-प्लेट, ओढ़ना-बिछावन भी बन जाता था। पाठकों का एक वर्ग इसी बहाने अखबार खरीदता था, कुछ पन्ने बिछाता था, कुछ पन्ने पढ़ता और कुछ पर खाना खा लिया करता था।


      विगत कुछ वर्षों में चीन से आयातित पोलिथीन शीट दस रुपए में सभी रेलवे स्टेशनों पर मिल जाती है, जो असाधारण रुप से रंगीन होती है – भारत के किसी सबसे रंगीन समाचार-पत्र से ज्यादा रंगीन। इसकी लंबाई पाँच फुट और चौड़ाई तीन फुट होती है। वजन हर अखबार से कम। इस पर खाना खाने के बाद धोया जा सकता है, धोने के बाद एक रुमाल से पोंछ दें तो इस पर तुरंत सोया जा सकता है।

क्यों नहीं भारत से आगे रहेगा वह देश जिसने भारत के उस वर्ग की समस्या को दूर बैठे ही हल कर दिया। अब हर बार स्टेशन पर अखबार नहीं खरीदना पड़ता। एक पोलिथीन शीट कई महीने तक दैनिक यात्री के बैग में पड़ा रहता है।

Saturday, June 22, 2013

प्राकृतिक आपदा में चन्दा की संस्कृति से आगे का रास्ता

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeप्राकृतिक आपदा के तुरत बाद देश के दुसरे हिस्से की सरकारों का कुछ कर्त्तव्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्राकृतिक आपदाग्रस्त  राज्य की सरकार और जनता के प्रति दुसरे राज्यों की सहानुभूति के सच को दो घटनाओं से समझा जा सकता है - एक राज्य के मुख्यमंत्री ने दुसरे राज्य के दौरे के दिन उस राज्य की जनता को समाचार-पत्रों में पुरे पन्ने के विज्ञापन द्वारा यह एहसास करवाया कि एक राज्य ने दुसरे राज्य को इतनी राशि की मदद की है। वहीं इस दुसरे राज्य की सरकार ने अपने ही राज्य के (दो दिन पहले बर्खास्त किए गए ) स्वास्थ्य मंत्री की प्राण रक्षा की गुहार को बिलकुल अनसुना कर दिया, जबकि यह जगजाहिर है कि उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बिहारी भाई-बहन भी फंसे हुए हैं। जो सरकारें अपने राज्य की बड़ी राजनीतिक हस्तियों को बचाने के लिए कोई औपचारिकता नही करती वे सरकारे एक दो करोड़ का चेक देकर अपने किसी अफसर को मातमपुर्सी के लिए भेज देतीं हैं। वही दुसरे राज्य पर एहसान जतानेवाले मुख्यमंत्री एक  फिर हेलीकप्टर पर चढ़ कर एहसान जताने निकल पड़ते हैं।

किसी भी आपदा के आने में जनता की भूमिका नगण्य है. संविधान ने देश की संस्कृति का की रक्षा का भार जिनके ऊपर दे रखा है वे ही समलैंगिकता को मुख्यधारा बनाने पर तुले हुए है तो पोलिथिन संस्कृति और केदारनाथ  मौज मस्ती करने जाने की संस्कृति का दोष जनता पर डाल कर देश का ही नुकसान कर रहे हैं। इसलिए इस परिस्थिति में मेरे विचार में देश की आपदा प्रबंधन नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए:-

1.      प्राकृतिक आपदा की प्रथम सूचना मिलते ही युद्ध स्तर पर दुसरे राज्य सरकारों को सामग्री जुटाने का काम शुरू कर देना चाहिए। साथ ही जो भी दूसरी संस्थाएं मदद करने की इच्छुक हो उन्हें भी यही करना चाहिए। मौसम के साफ़ होने तक के 12, 24 या 48 घंटो तक यह काम चलता रहे तो देश के 24 राज्य सरकारों और इतने ही स्वयंसेवी संगठनो द्वारा मौसम साफ़ होते ही क्षेत्र में राहत सामग्री लेकर प्रवेश करना आसान होगा। सनद रहे कि  एक राज्य सरकार एक रात की नोटिस पर १-२ टन सामग्री तो भेज ही सकती है और ऐसा वे सभी दूसरी संस्थाए भी कर सकती हैं जो 1000  से 10000 करोड़ का आयकर प्रपत्र दाखिल करती हैं।

2.      मौसम साफ़ होने के बाद ये सभी संगठन अपने दल-बल के साथ क्षेत्र में अलग अलग दिशाओं से घुस जाएं। जान बचाने को वरीयता तथा स्थानीय लोगो को आसरा देते हुए स्थानीय लोगो तथा उस क्षेत्र में रह रही पुलिस सेना आदि की मदद लेते हुए ये आगे बढती जाएँ, तो जान बचने की तथा चिकित्सा सुविधा मिलाने की संभावनाए बढ़ जायेगी।


3.      ज़रा सोचिए जिस राज्य में आपदा आयी है वह सिर्फ नागरिको के ऊपर ही नही आयी है बल्की वहा के कर्मचारियो-अधिकारियों पर भी आयी होती है। जो खुद ही तबाह हो गया हो उससे मदद की उम्मीद करना कहा तक सम्यक है। इस परिस्थिति में देश न जाने किस कानून से कल रहा है कि प्राकृतिक आपदा से जुझने की पुरी जिम्मेवारी स्थानीय प्रशासन से शुरू और सैन्य बलों  पर ख़त्म हो जाती है।

4.      इसके बाद तबाही की सूचना जैसे जैसे बड़ी होती जाए वैसे वैसे बिना किसी अपने पराये का भेद किए तमाम राज्य सरकारे अपने कर्मचारियो को इस काम में झोकती जाएं। ऐसा करने से प्रथम और सतत मदद मिलना संभव हो जाएगा।


5.      सेना नौसेना और अर्धसैनिक बलों  को इस बात की आजादी दी जानी चाहिए कि  शांतिकाल में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में मदद हेतु युद्धस्तर पर अधिकतम प्रयास करने, वांछित  संख्या में जवानो और उपस्करों के इस्तेमाल करने हेतु वे स्वतन्त्र हैं। इससे हेलीकोप्टर की कमी जैसे मुद्दों से निबटने में आसानी होगी।

6.      जब देश की राज्य सरकारे स्वयं स्वत:स्फूर्त मदद नही दे सकतीं तो जनता से चन्दा इकट्ठा करने का कोई मतलब नही है। उसी प्रकार यदि  देश के किन्ही 5-10 जिलों में आपदा आयी हो और बाकी लोग हवं करते रहे, मोमबत्तियां जलाते रहें,प्रार्थना करते रहें तो यह खुद के साथ भी छल है और उनलोगों के साथ भी जिन्हें मदद के लिए हाथ चाहिए, वे पैसा खाकर नही जी सकते। यदी पैसा खाकर जीना संभव होता तो 100  रुपये में बिस्कुट और पानी नही खरीदना पड़ता।


7.      देश के 25 राज्य सरकारों के पास अपने मुख्यमंत्रियों  के चढाने के लिए कम से कम 25 हेलीकोप्टर तो होंगे ही लेकिन घोटाले के उद्देश्य से खरीदे हुए , सेना और वायुसेना के हेलिकोप्टर के भरोसे ये खुद ही उड़ते है। फिर भी इनमे से किसी ने नही कहा कि मेरा हेलीकोप्टर ले जाओ, सभी ने करोड़ का चेक थमा दिया। 

8.      देश की सभी राज्य सरकारो और स्वयंसेवी संस्थाओं की  टीमों को एन डी  आर  एफ  से निर्देशन एवं सहयोग लेते हुए राष्ट्रवादी  एकजुटता की भावना से 10 - 20  दिनों तक भारतमाता की सेवा में जुट जाना चाहिए।

नालंदा विश्वविद्दालय के पुस्तकालय में लगी आग को किसी ने बुझाया क्यों नहीं?

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeनालंदा विश्वविद्दालय भारत ही नहीं विश्व का अपने समय का महानतम विश्वविद्दालय हुआ करता था। भारत के पूरब से पश्चिम तक जहां भी मानव सभ्यता मौजुद थी, वहां से कोई-न-कोई व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करने भारत के नालंदा विश्वविद्दालय आया और वह व्यक्ति जब वापस गया तो अपने देश के बौद्धिक जगत में आध्यात्मिक क्रान्ति का प्रसार किया।


उस काल में सीमेंट और कंक्रीट की उपलब्ध नहीं था। ऐसी स्थिति में जब यह कहा जाता है कि नलंदा विश्वविद्दालय का पुस्तकालय नौ तलों का था तो यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि कैसे वह भवन बनाया गया होगा, कैसा दीखता होगा, उसमें क्या सुविधाएं होंगी आदि। उसमें हजारो छात्र अध्ययन करते थे और ताड़पत्र और भोजपत्र पर लिखे लाखों ग्रंथ संग्रहित किए जाते थे।

यह प्रश्न आज भी कपोल-कल्पित विवेचना का विषय है कि इस महानतम विश्वविद्दालय के विशाल पुस्तकालय में आग लगायी गयी वह आग छ: महीने तक जलती रही लेकिन किसी ने बुझाया क्यों नहीं। इस प्रश्न का उत्तर मैं अपनी कपोल कल्पना से देने का प्रयास करना चाहुंगा, मेरी यह धृष्टता जिन्हें पसंद न आये वे क्षमा करेंगे। मेरी नजर में जो बातें मैं कहने जा रहा हुँ वह नालंडा विश्वविद्दालय के लिए तो क्ल्पित है, मैकाले की शिक्षा पद्धति का जनता से समर्थन का एक कारण है और आज के शिक्षा व्यवस्था के लिए भी उतना ही सही और चेतावनी है।

(अ). आम जनता, खासकर मध्यवर्ग का विश्वास और सम्मान हासिल करना और बनाये रखना किसी भी व्यवस्था के सुदीर्घ होने की प्रथम जरुरत है। जनता का विश्वास और प्रेम खो देने के बाद बड़ी से बड़ी सैनिक व्यवस्था टिक नहीं सकती। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं :

(क). स्थापना के प्रारंभिक कुछ शताब्दियों तक इस विश्वविद्दालय को समय समय पर राज्यों से धन-दान मिलता रहा। लेकिन जब राज्याश्रय बंद हुआ तो विश्वविद्दालय अपने आस पड़ोस के चंद गावों पर आधारित हो गया जो उसे अपना खर्च चलाने के लिए राजाओं से दान में मिले थे। लेकिन तबतक इस विश्वविद्दालय का काफी विस्तार हो गया था और छात्रों और शिक्षकों की संख्या काफी बढ़ गयी थी जिसका भार उठाना चंद गांवों के लिए संभव नहीं था।

(ख). इस प्रकार से सवर्ण से अवर्ण तक और गरीब से अमीर तक, पास पड़ोस के गावों में बसने वाली जनता इस विश्वविद्दालय के छात्रों और शिक्षकों की भारी भरकम फौज का बोझ उठाते-उठाते थक गयी और इस बोझ को उतार फेकना चाहती थी। इसलिए जब विश्वविद्दालय में नरसंहार के बाद पुस्तकालय में आग लगायी तो आस-पास के लोगों ने बुझाने का कोई खास प्रयास नहीं किया।

(ग). उस विश्वविद्दालय के ज्ञानी-तपस्वी लोगों ने अति-आधात्मिकता के आगे भौतिक विकास की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। जिससे आम जनता को उस विश्वविद्दालय से कोई खास लाभ नहीं दिख रहा था। यहां इस तथ्य की अनदेखी की गयी कि शिक्षा समाज के सर्वांगीण विकास के लिए होनी चाहिए। वर्तमान में अति-भौतिकता के आगे आध्यात्मिकता की अनदेखी हो रही है।

(घ). विश्वविद्दालय ने बदले में उन गावों को क्या दिया। उस विश्वविद्दालय में नामांकन की शर्तें ऐसी थीं कि आस-पास के गावों से चंद लोग ही उस विश्वविद्दालय में अध्ययन कर पाये। दुसरी तरफ विश्वविद्दालय उन्हें कोई भौतिक लाभ देने से रहा।

(ङ). शंकराचार्य ने इस विश्वविद्दालय के लिए उतना भी नहीं किया जितना गया के गयापालों के लिए किया। दुसरी तरफ इस विश्वविद्दालय के ज्ञानीजन न तो शंकराचार्य को हरा पाये न ही कोई सौहार्द्रपूर्ण संबंध कायम कर पाये। दुसरी तरफ शंकराचार्य और उनसे शास्त्रार्थ करने वाले लोग इस विश्वविद्दालय से संबंधित नहीं थे, जिसे इस विश्वविद्दालय की स्थिति में पराभव का लक्षण माना जा सकता है। इन घटनाओं ने जनता के मन से विश्वविद्दालय के लिए आदरभाव को नष्ट किया।

(च). पिछले हजार सालों से देश में अपने-अपने जगह पर सैकड़ों धर्माचार्यों के रहते हुए भी हिन्दू धर्म से दुसरे धर्म में धर्म परिवर्तन निरंतर जारी है, इसे अगर अपने मुंह मियां मिठ्ठुओं के तप में कमी माना जाए तो इसी प्रकार की कमी उस विश्वविद्दालय के आचार्यों में भी पिढ़ी दर पिढ़ी बढ़ती गयी। तप्श्चर्या के अभाव में मंत्र और पूजा के अभाव में देवता श्रीहीन हो जाते है, यही स्थिति इस विश्वविद्दालय की हो गयी। इस परिस्थिति ने जनता के मन से गर्वभाव को समाप्त करने का काम किया।





(ब). स्थापना के प्रारंभिक कुछ शताब्दियों तक इस विश्वविद्दालय को राज्याश्रय प्राप्त था। मुस्लिम आक्रमण के बाद तत्कालीन राजसत्ताएं खुद के बचाव के आगे इस विश्वविद्दालय पर ध्यान नहीं दे पायीं।



(स). जब राज्य और राजा ही परास्त हो गये तो विश्वविद्दालय की रक्षा कौन करता। जब हमला हुआ तो जनता अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागने लगी। भयानक आग लगी तो इसे बुझाने वाला कोई व्यक्ति-समूह वहां रहा ही नहीं। चार-छ: माह बाद, जबतक जंगलों से वापस लौटकर लोग वापस आये तबतक पुस्तकालय जल चुका था।

Saturday, December 1, 2012

रावण के नौ सिरों का उसे आग देने वाले वंशजों ने घोटाला कर दिया

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeसाल 2012 के विजयादशमी के दिन पटना के गांधी-मैदान में होनेवाले रावण-वध के कार्यक्रम को देखने हम सपरिवार और गांव से आये कुछ पड़ोसी परिवारों के साथ शाम के चार बजे गाँधी मैदान पहुंचे। पटना में रहने के बावजुद ठीक 20 वर्ष बाद इस कार्यक्रम को देखने का संयोग बन सका।
मैदान में दाखिल होने के समय ही ट्विन टावर के सामने वाले गेट पर भीड़ का सामना करना पड़ रहा था। मैने अपने साथ के परिजनों से उसी समय यह कह दिया की कार्यक्रम समाप्त होने के एक घंटे के बाद ही बाहर निकलना सुविधाजनक रहेगा।
खैर! किसी तरह चीनी पोलिथीन शीट बिछाने की जगह मैदान के बीच में मिल पायी, तो वहीं पर सभी महिलाओं को बाल-बच्चे समेत स्थिर से रहने का निर्देश दे, चीनियाबेदाम देकर निकल पड़ा मुआयना करने।

अरे! यह क्या! रावण कौन है, सभी के एक ही सिर है।
पास खड़े बुजुर्ग दर्शक से पुछा तो उन्होने बजाए यह बताने के, कि रावण कौन है, यह बताया कि घोटाले के इस माहौल में रावण के नौ सिरों का भी घोटाला हो गया तो कौन सी बड़ी बात हो गयी। उनके साथी ने टिप्पणी की – रावण को आग देने वालो ने रावण के वंशज होने का सबुत दे दिया है। रावण के नौ सिर भी गायब है और प्रशासन द्वारा बनाया जाने वाला दर्शक-दीर्घा आबादी और आगन्तुकों के अनुपात में बढ़ने के बजाए साल दर साल छोटा ही होता जा रहा है। लोगों ने रावण का वंशज होने का फर्ज निभाया है, वह उतनी राक्षसता न सही - घोटाला तो कर ही सकता है।


छठ के दिन जो कलेक्टेरियट घाट पर हुआ, रावण-वध के दिन उसे मै गांधी मैदान में झेल आया हुं।
रावण-दहन के तीस मिनट बीतते-बीतते मेरे साथ की महिलाओं-बच्चों का धैर्य जवाब दे चुका था और वे वहां उपलब्ध पावभाजी से लेकर आइसक्रीम तक सबकुछ चख चुके थे। मुझे उनकी बात माननी पड़ी और बाहर निकल रही भीड़ के साथ हो लेना पड़ा, उसी गेट की ओर जिससे होकर आया था।
रावण दहन के दस मिनट के अंदर भीड़ के दबाव के आगे प्रशासन के सिपाही चाहरदिवारी पर चढ़ कर अपनी जान बचा रहे थे। मैं अपने साथ की महिलाओं को देख भी नही पा रहा था और ना उनसे बात कर पा रहा था। गेट के पचास मीटर अंदर से पचास मीटर बाहर तक भीड़ एक धीमी गति से चलने वाली आटा चक्की कि तरह मुझे और बच्चों को पिस रही थी। गेट से एक कदम बाहर आते ही भीड़ का दबाव हर व्यक्ति को सौ फीट चौड़ी सड़क के उस पार के भवन के पास तक फेंक रही थी। मेरी नजरों के सामने से मेरा एकलौता बेटा और मेरे गांववाले पडोसी का बेटा मौत के मुंह मे जाते-जाते बचा, क्योंकि दोनो बच्चे मेरे दोनो कंधो पर थे और भीड़ का असाधारण दबाव मेरे खुद के कलेजे को बाहर निकाल रहा था। बधाई देना चाहुंगा उन जमीर-विहीन समाचार माध्यमों को जो राजनेताओं की ओट मे अपनी दुकान चलाते हैं, लेकिन ये बाते उन्हे नही दिखतीं।
बिहार में छेड़खानी की वारदातें घट गयी हैं – ऐसा कहते कहते फौर्च्युनर गाड़ीयां बढ़ गयी है
जो मैने, मेरी पत्नी ने और वहां खड़े पुलिसकर्मीयों ने देखा उसे सिर्फ स्त्रियों के प्रति शारीरिक क्रुरता के दायरे मे रखा जा सकता है। मैने और मेरी पत्नी ने गिनती जरूर पढ़ी है, और ऐसी घटनाओं की संख्या अगले एक घंटे मे सिर्फ उसी गेट पर थी-पांच।
चौदह लोगों की मेरी टोली के बाकि सदस्यों का इंतजार मैं उसी सामने वाले भवन के कैम्पस में खड़े होकर करने लगा। बच्चों को एक ठेले के पीछे खड़ा कर मेरी नजरे बाकी सदस्यों को ढूंढ़ने में लग गयी। वे लोग भी भीड़ के बीच मुझे खोज रहे थे और अगले आधे घंटे में एक-एक कर मिलते गये।
गेट पार करते समय लगभग बीस साल की एक लड़की मुझसे चार-पांच व्यक्तियों से आगे चल रही थी, गेट से बाहर निकलते ही भयानक आवाज में चिल्ला उठी। अपने परिजनों को संभालने की चिंता के बीच उसकी आवाज सुनकर मैने नजर घुमायी तो कुछ लड़कों को भागते देखा। कुछ मीटर की दूरी से मेरी श्रीमतीजी ने मुझे आवाज दिया, मैने उन्हे देखा तबतक भीड़ मुझे सामने वाले भवन के पास धकेल चुकी थी। मेरी श्रीमतीजी जब मुझसे मिलीं तो बताया कि वह लड़की दर्द के मारे बेहोश हुई जा रही थी और उसके साथ आया एक पुरुष और कम उम्र की लड़की उसे टांग कर ले गये।
दस मिनट के इंतजार के बाद अपनी गांववाली पड़ोसन को ढूंढ़ने हेतु घुमने लगा तो एक बूजुर्ग महिला अपने फट चुके कानों से खुन पोंछते हुए रो-रोकर गालीयां दिए जा रही थी। किसी ने कनबाली खींच ली थी। आगे बढा तो एक मां अपनी बेटी को खरी-खोटी सुना रही थी – “कहीं कुछ हो जाता तो तुम्हारे अब्बा को क्या जवाब देते, देश भर के छोकरों को पटना में आकर *** करने की छूट है”। (हमारी 70 साल की बूढ़िया शिक्षा व्यवस्था की वजह से देश, राज्य और राज समानार्थी बने हुए हैं)
पैदल चलते इनकम टैक्स गोलम्बर तक आने के बाद ही टेम्पो मिल पाया। लेकिन पूरे रास्ते स्त्री-हिंसा में कमी के आंकड़ों पर चिन्तन चलता रहा। साथ ही स्त्री सशक्तीकरण के पश्चिम प्रायोजित विमर्श पर भी। गांधी जी के शब्द तो राजनीति की दुकान में बिकते बिकते बिकाऊ से आगे उबाऊ हो गये हैं - लेकिन इतना जरुर हो गया है कि गांधी के समय में महिलाएं इतनी सशक्त थीं कि पूरे देश का धान ढेंकी में कुट डालती थी, लेकिन आज पुरुष इतना कमजोर हो गया है कि व्यवस्था के विरुद्ध बोल भी नहीं पाता।
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एक रुपये के अखबार को दस रुपये की चीन-आयातित पोलिथीन शीट ने हरा दिया

Page copy protected against web site content infringement by Copyscapeअखबार गरीबों के विकास कि चाहे जितनी चिन्ता करते हों, लेकिन स्टेशन पर गरीबों के बिछावन के तौर पर जरुर भारत-प्रसिद्ध था। सबसे कम किमत में मिलनेवाला अखबार गरीब तथा निम्न-मध्यवर्ग का चहेता इसलिए भी था क्योंकि वह थाली-प्लेट, ओढ़ना-बिछावन भी बन जाता था। पाठकों का एक वर्ग इसी बहाने अखबार खरीदता था, कुछ पन्ने बिछाता था, कुछ पन्ने पढ़ता और कुछ पर खाना खा लिया करता था।

Wednesday, October 17, 2012

विकास किसका – कचरे का


विकास किसका – कचरे का

मिट्टी के मकान और फूस की झोपड़ी में से इतना भी कचरा नहीं निकला था कि दोनों हाथों मे भर सके। देखना है तो सुदूर देहात में जाइए और किसी आदिवासी के यहां सुबह-सुबह देख लिजिए। फिर आदमी ने आधुनिक बनना और विकसित बनना शुरु किया। आदमी के द्वारा फेंके गए कचरे से गढ्ढे भर गे, तालाब-आहर-पोखर-पइन भी भर गए। गोया कचरा न हो कोई राक्षस हो। हल्की-सी बरसात हुई नहीं कि बाढ़ हाजिर हो जाए और उस बाढ़ में बहता गली-कुचे में लुक छिप कर फेंका गया कचरा मुंह के सामने नाजिर हो जाए।

विकास हुआ तो कचरे का या आदमी का, यह सवाल आदमी से पूछने पर थप्पड़ खाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी को विकास के प्यार में परेशान है। वह दिन-रात या तो बेरोजगारी का थप्पड़ खा-खाकर परेशान है, या नियोक्ता के। जो इनसे बच जाते हैं वे तो मीडिया के पीछे पड़ने से परेशान हैं। कुछ भी हो परेशान मस्तिष्क को सवाल-जवाब से झुंझलाहट होती है। परेशानीयों के थप्पड़ खाकर झुंझलाया इंसान इस तरह के सवाल करनेवाले पर थप्पड़ जरुर चला देगा। क्योंकि वह जानता है कि उसके सोंचने से कोई व्यावहारिक संतोषप्रद जवाब नहीं मिलेगा। इसलिए जो सोचने को कहे समझो समय उसका भारी हो गया है। तब कचरे से ही सवाल पूछ्ना मजबुरी है।

अब कचरा भी बोलता है भला! आदमी चुप रहता है तो सबूत बोलता है। सबूत को चुप करने के लिए रुपया बोलता है! रुपए के दम पर वकील बोलता है, वकील के दम पर न्यायाधीश बोलता है। विज्ञापनदाता के कहने पर पत्रकार बोलता है, कसाई के यहाँ पहुँचने पर गुंगा बकरा भी बोलता है। इसी तरह जब डेंगु-मलेरिया होता है तो मरीज के मुंह से कचरा बोलता है, सरकार के पुरी फौज लगाने पर भी नहीं मरनेवाले मच्छर के मुंह से कचरा बोलता है, ऑटो-कार-रेलवे-कारखाने के धुंए से कचरा बोलता है, गौर से देखो गली-गली में आजु से बाजु से कचरा बोलता है।

कचरा क्या बोलता है – पहाड़ों में पत्थर थे, पथरों पर झाड़ीयाँ थी, झाड़ीयों मे हरियाली थी, हरियाली मे जड़ी-बुटीयाँ थी, जड़ी-बुटीयों मे मनुष्यों की जीवनी शक्ति थी। मनुष्यों ने अपनी जीवनी शक्ति की जड़ी-बुटीयों की नस्ल मिटायी, हरियाली हटा कार्बन-डाई-ऑक्साइड बढ़ाया। फिर पत्थरों को तोड़ने में बारुद लगाया, ढोने में डीजल, इंच-दर-इंच कंक्रीट ढलवाया । हर दस साल बाद नया कंक्रीट ढलवाया। मनुष्यों के द्वारा तोड़ा गया हर पत्थर एक दिन कचरा बन जाता है, पेट्रोलियम की हर बुंद एक दिन कचरा बन जाती है, हर पानी की बोतल कचरा बन जाती है, दवाओं की पैकिंग कचरा बन जाती है, कुर्सी-पलंग-टेबुल कचरा बन जाती है, हर कागज का टुकड़ा कचरा बन जाता है, हर भोजन (चाय-बिस्कीट-केक) की पैकेजिंग कचरा बन जाती है, बच्चे जब अकेले छोड़ कर विदेश चले जाते हैं तब समझ में आता है कि इंसान खुद कचरा बन गया है। कभी राजतंत्र कचरा बन जाता है तो कभी राजा कचरा बन जाता है, कभी प्रजातंत्र का प्रधानमन्त्री – राष्ट्रपति भी एक दिन कचरा बन जाता है।

मनुष्य जो भी विकास के नाम पर करता है वह एक दिन कचरा बन जाता है। इंजिनीयरींग का नमुना पटना का गांधी-सेतु कचरा बन जाता है, अमेरीका का वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर कचरा बन जाता है। मेडिकल साइंस की खोजी गई हर नई एंटीबायोटिक एक दिन कचरा बन जाती है। नौकरी स्थायी हो जाने पर पी0एच0डी0 की थेसिस भी कचरा बन जाती है। जब स्टेशन पर शिशु को दूध नहीं मिलता तो पॉकेट का रुपया कचरा बन जाता है। स्टेशन से याद आया – हर बीस साल बाद रेलवे का इंजन-पटरी-डिब्बा कचरा बन जाता है, पचास साल बाद पूरा रेलवे स्टेशन कचरा बन जाता है। नालंदा विश्वविद्दालयों के खंडहरों में कुआँ आज भी मौजुद है लेकिन महान अविष्कारों की देन बोरींग-मोटर-पानी की टंकी कचरा बन जाती है।

कचरे ने आगे कहा – बता भला मैं रक्तबीज कैसे न बनुं। जब मनुष्य दिन-रात कचरा बनाता है, अपनी सारी अकादमिक बुद्धि को कचरा बनाने में लगाता है, उसका हर आविष्कार और अनुसंधान नए-नए विकसित संस्करण के कचरे बनाने का प्रतिफल देता है, उसकी पढ़ाई नंबर एक की दौड़ में उसके अच्छे भले बच्चे को कचरा बना देती है, उंची पगार और कैरियर के लिए बारह चौदह घंटे प्रतिदिन की कसरत को जायज ठहराकर दिल-नाड़ी-किडनी को कचरा बनाती है। मानव का कोई ऐसी गतिविधि ही नहीं है जो क्चरा नहीं बनाती – क्या फैशन, क्या एजुकेशन, क्या नौलेज, क्या जर्नलिज्म, क्या इंटरप्रेन्योरशीप, क्या रिसर्च, क्या इन्नोवेशन।

पूछना पड़ा – पिछले हजारों सालों से आप कहां थे कचरा महान? मानना पड़ेगा कि धरती से अँतरीक्ष तक आपका ही साम्राज्य है। आपको किसी का भय नहीं लगता? सतयुग-द्वापर-त्रेता का अंत हुआ, इतिहास में कई राक्षसराज पैदा हुए सबका अंत हुआ, ईश्वर के सभी अवतारों का अंत हुआ, लेकिन आपको तो अपने अंत का कोई भय ही नही है। कभी कोई बुरा सपना देखा हो तो बताएँ।

अट्टहास कर कचरा बोला – हजारों सालों से न कंक्रीट था, न पेट्रोलियम और न ही मानव में मूर्खता थी। मानव जो भी करता नैतिकता के दायरे से बाहर नहीं जाता था। सबसे बड़ी बात कि मनुष्य तब प्रकृति को ईश्वर समझता था और खुद (अपने शरीर) को कचरे का डब्बा। अपने स्वत्व के अहंकार से मुक्त रहकर वह प्रकृति का पोषण करता था, अभी की तरह दोहन नहीं. पहले वह उन्हें गुरु मानता था जो हर तरह का ज्ञान, आनंद और विकास अपने शरीर के अंदर से ढुँढ़ निकालते थे। दुसरों के लिखे-कहे का रट्टामार जोड़-तोड़ कर खुद को बड़ा साबित करने की कोशिश करनेवाला धुर्त घोषित कर दिया जाता था। अब वह उसे गुरु मानता है जो ज्यादा से ज्यादा किताबें रट्टा मार चुका हो, ज्यादा से ज्यादा कागज के रुपये, डिग्रीयां या सम्मानपत्र इकट्ठा कर चुका हो। अब सबसे बड़ा वह है जो सबसे ज्यादा कचरा गढ़ चुका हो।

तभी तो हिमालय की तराईयों में और अंडमान-निकोबार के द्वीपों में मनुष्य हजारों सालों से चैन से रह रहा था। आज उसे कहीं चैन नहीं है। गांवों से शहर भागता है, शहरों से महानगर, महानगरों से विदेश, विदेश से दुसरे ग्रहों पर लेकिन बेचैन ही मर जाता है। वह भूल गया है ईसा मसीह और पैगम्बर मोहम्मद को, राम और कृष्ण को कालपनिक घोषित कर चुका है – गांधी को भी कहां मानता है। गांधी ने कहा था कि पृथ्वी अपने सारी संतानों को खाना दे सकती है लेकिन किसी एक व्यक्ति के लोभ का पेट नहीं भर सकती। अगर उनकी बात को मनुष्य मानता तो तमाम लोभीयों को चुनाव में सीधे हरा देता लेकिन पीढ़ीयों से रोटी देनेवाली अपनी धरती मां को छोड़ कर भागता नहीं। जिस प्रकार आदमी जितना भागता है उसे कुत्ते और मधुमक्खी उतना ही खदेड़ते हैं, उसी प्रकार आज का आदमी जितना भागदौड़ करता है उतना ही मेरा साम्राज्य बढ़ता है, क्योंकि विकास की मृगतृष्णा में वह हर कदम पर कचरा ही तो पैदा करता जाता है।

मुझे किसी का भय नहीं है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि इतनी दूर तक सोंचे, जो इतना सोचेगा उसे दुनिया पागल घोषित कर देगी, न्युटन की तरह। वह जितना बाहरी विकास करेगा उअतना ही कचरा पैदा करेगा, उतना ही अधिक मेरा साम्राज्य बढ़ेगा, उतना ही मैं गरीबों का खुन पिउंगा और शक्तिशाली बनुंगा। जो बचेंगे वे विकास के अतिरिक्त कुछ भी दाएँ-बाएँ नहीं सोचेंगे क्योंकि वे मानते हैं कि वे ही सबसे बुद्धिमान, शक्तिशाली और विकासशील और विकासशील हैं। जो भी आभ्यंतर के विकास की बात करेगा उसे आमरण अनशन की मौत नसीब होगी। इसलिए मैं निर्भय हुं। जो लोग ठहरकर सोचेंगे वे पायेंगे कि उनका पड़ोसी उनसे बहुत आगे निकल चुका है, उनकी आनेवाली पीढ़ीयां अपने भौतिक पिछड़ेपन के लिए अपने पितरों को गाली देंगी और विकास की अंतहीन अंधी सुरंग में दौड़ पड़ेंगी - जिवनभर कचरा पैदा कर खुद कचरा बन जाने के लिए।

हां! एक बार बहुत समय पहले एक बुरा सपना आया था, गांधी की तरह कोई खुद नंगे रहकर अनुयायियों से कपड़े जलवा रहा था, मार्क्स की तरह पेट्रोलियम-कंक्रीट के खिलाफ चौराहे पर चिल्ला रहा था, शंकराचार्य और विवेकानंद की तरह विश्वभर के विद्वानो और वैज्ञानिकों को निरुत्तर कर रहा थ, ईसा मसीह की तरह उसे सुली पर चढ़ा दिया गया तब जाकर मेरी नींद खुली। जब नींद खुली तो पाया कि पिछले एक घंटे में मेरा साम्राज्य 100 हेक्टेयर बढ़ चुका है, मेरे अनुयायीयों की संख्या एक लाख बढ़ चुकी है सारे अनुयायियों ने कमा-कमाकर एक हजार टन कचरा बढ़ा दिया है। सपने से पैदा हुई चिंता दूर हो चुकी थी।

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खाप – वोटतंत्र का श्राप

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खाप – वोटतंत्र का श्राप

हरियाणा के पिछले एक महीने में 18 महिलाओं, जिनमें नाबालिग भी शामिल हैं, के साथ बलात्कार की घटनाएँ पुलिस द्वारा दर्ज की गई हैं। इनसे हरियाणा सरकार की इतनी किरकिरी हुई कि सोनिया गाँधी जब हरियाणा गई तो एक बलात्कार-पीड़ित दलित महिला से मिलने अस्पताल जा पहुँची। लेकिन उन्होने जब हरियाणा छोड़ते समय पत्रकारों से बात की तो बलात्कार की औपचारिक आलोचना के साथ ही यह भी कह गईं कि देशभर में इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपराधियों को सजा, पीड़ितों को न्याय और कानून व्यस्था में सुधार के बजाए अपनी हरियाणा सरकार का बचाव उनकी प्राथमिकता बन गई। गोया महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं तो इसे न तो हरियाणा सरकार और न ही केन्द्र सरकार की कोई जिम्मेवारी है, न इसे उनकी असफ़लता के तौर पर देखा जाना चाहिए।

 

      जब बलात्कार-पीड़िता से मिलने के बाद इस तरह का असंवेदनशील बयान दिया गया तो बलात्कारी से मिल लेने के बाद क्या होता? संभव है कि तब वही बयान होता जो हरियाणा की खाप पंचायतों ने दिया – लड़कियाँ पहले की अपेक्षा अब जल्दी जवान हो रही हैं इसलिए उनकी जल्दी शादी कर दी जानी चाहिए – सरकार को विवाह की न्यूनतम उम्र सीमा को घटाकर पंद्रह साल कर देना चाहिए।

 

      यह हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खाप-राजनीति का ही असर है कि बलात्कारियों को यथाशीघ्र सजा सुनिश्चित करने के बजाए ऐसी घटनाओं की वर्ष-दर-वर्ष बढ़ती संख्या को सामान्य रुप से लेने की कोशिश, उस राजनीतिक हस्ती को करनी पड़ी जिसे विश्व की छठवें नंबर की सबसे शक्तिशाली महिला घोषित किया गया है।

 

हद तो तब हो गई जब उन्हीं की पार्टी के नेताओं ने न सिर्फ खुलेआम खाप की बातों का समर्थन किया बल्कि विपक्ष ने पूरी तन्मयता से खापों की बात राज्यपाल तक पहुँचाने में शीघ्रता दिखाई। खापों के डर से उत्तर प्रदेश से राजस्थान, हरियाणा से हिमाचल प्रदेश तक के सत्ताधारी और विपक्ष के नेता समय-समय पर खापों के दकियानूसीपन का समर्थन करते देखे जाते हैं।

 

      आजादी के पैंसठ साल बाद भी जिस देश के अधिकांश ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा की बैठकें नहीं होती, जातीय राजनीति करनेवाले करनेवाले अधिकांश लोग बिना दहेज के अपनी ही जाति की बेटी को अपनी बहू नहीं बनाते, किसी पंचायत सरकार के काम और खर्च का हिसाब न तो जनता ही एकजुट होकर माँगती है, न ही मिलता है, ऐसी परिस्थिति में आखिर यह कौन सी बात है जिसकी वजह से एक बड़े भू-भाग में हिन्दू से मुस्लिम तक खाप पंचायतों का बोलबाला है।

 

      कभी ये खाप पंचायतें एक स्त्री को कुछ साल से साथ रह रहे पति को छोड़कर अपने पुराने पति के पास लौट जाने का फरमान सुनाती हैं, तो कभी बच्चों और प्रेमी-पति को छोड़्कर पिता की मर्जी से दूसरी शादी कर लेने का। इन खापों की अधिकांश चिंताएं स्त्रियों को लेकर ही होती हैं। स्थानीय राजनेता खुलेआम इन खापों का समर्थन करते हैं तो राष्ट्रीय राजनेता कुटनीतिक रूप से या मौन से।

 

      इस क्षेत्र में अधिकांश महिलाएं अभी जागरुकता की पहली सीढियों पर ही हैं और समाज मुख्यतः पुरुषवादी ही है। अलग-अलग जातियों और समुदायों का घनत्व कहीं न कहीं ज्यादा होता है। ऐसी जगहों पर ये समूह पारंपरिक रूप से अपनी समस्याओं को खाप पंचायतों में सुलझाते थे। वर्तमान में ऐसी पंचायतों का नेतृत्व ऐसे लोग करते हैं जो या तो दबंग प्रवृत्ति के होते हैं या पारंपरिक रुप से धनाढ्य रहे हैं।

 

      लोकतंत्र का तकाजा है कि राजनेताओं के लिए यह जरूरी हो जाता है कि कम-से-कम मेहनत में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएँ। यही तकाजा राजनेताओं को खापों का समर्थन करने पर मजबूर कर भारतीय लोकतंत्र को वोटतंत्र का जनाजा बना देता है। राजनेताओं को  एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग मिलने के बजाए खाप के चंद नेताओं से मिलना और उन्हें अपने पक्ष में करना आसान होता है। बाद में खाप के ये नेता राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में सामुहिक या जातीय गोलबंदी का काम करते हैं। बदले में राजनेता ठेकेदारी-पट्टेदारी आदि के जरिए इन दबंगों के व्यक्तिगत हित मदद करते हैं और सामुहिक हित सामूहित कार्यों (ज्यादातर धार्मिक या आडंबरकारी आयोजनों) में चंदे देकर करते हैं। यह एक अति-सरलीकृत विवेचना है, उम्मीद है पाठकगण लेखक से ज्यादा समझदार होंगे ।

 

      यह मजबुरी राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं को इन खापों को बनाए रखने का कारण बनती है। दुसरी तरफ खापों को अपने आस-पास के माहौल पर वर्चस्व बनाए रखने में मदद करती है, विजयी राजनेता के समर्थक अपने क्षेत्र में दुसरी जातियों समुदायों पर वर्चस्व बनाये रखने में नेताजी की मदद भी लेते हैं। कभी-कभी तो ये राजनेता खापों के बीच विवादो में सुलहकर्ता की मुख भुमिका में भी रहते हैं। इस तरह तैयार होता है एक लोकताँत्रिक राजनेता और खाप का ऐसा गठजोड़ जो एक-दुसरे को कुछ भी करने की छुट दे देता है।

 

सर्वोच्च न्यायालय इन खाप पंचायतों और उनके द्वारा समय-समय पर जारी होनेवाले फरमानों को असंवैधानिक करार दे चुकी है, यहां तक कि कई मौकों पर खापों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा है। इसके बावजूद खाप पंचायतें न केवल तालीबानी फरमान जारी करती है बल्की स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय मीडिया के समक्ष उपस्थित भी होती है। राजनेता मजबुर है कि समर्थन करना छोड़ नहीं सकते। आलोचना होने पर केन्द्र राज्यों पर और राज्य केन्द्र पर कुटनीतिक दार्शनिकता की गुगली मारते हैं। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सर्वोच्च नेता का बयान खापों की आवश्यकता का नतीजा भले ही रहा हो लेकिन वोट के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो कानून का राज नहीं रह पायेगा। रह जायेगा तो केवल खापों का राज जो आधी आबादी के गैरतपूर्ण अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देगा।

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